Thursday, April 16, 2020

कहानी : एहसास


सूर्य अपनी लालिमा समेटते हुए रात के अँधकार को आमंत्रण दे रहा था | सड़क पर ट्रैफिक के शोर के बीच वसुधा अपनी सोच में खोयी थी, तभी पीछे से एक और गाड़ी के हॉर्न ने उसे सोच से जगाया | हड़बड़ाहट में उसने सामने देखा, ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती लाल से हरी हो चुकी थी, उसने गाड़ी का गियर बदला और आगे  बढ़ गयी | सूरज डूबते-डूबते वसुधा भी दिनभर दफ्तर और सड़कों पर धक्के खा कर अपनी मंज़िल  पहुँच चुकी थी | 

तिनके-तिनके से जैसे चिड़िया अपना घोंसला बनाती है , कुछ वैसे मासिक किस्तें  भर कर अपने नीड़ की नींव को मज़बूती देने का काम कर रही थी वसुधा | राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक शहर में उसका भी अपना एक थ्री बैडरूम फ्लैट था, जो उसके बमुश्किल बचत से जुटाए रुपयों से कई बिल्डरों- प्रोजेक्टों के चक्कर काटने के बाद मिला था | और इस नीड के निर्माण में उसका साथ देने का बीड़ा उठाया था ,  क्षितिज ने |  क्षितिज , वसुधा का पति ही नहीं बल्कि एक अच्छा दोस्त था जो उसके हर सुख दुःख का भागीदार था | क्षितिज और वसुधा की मुलाकात एक टेक्निकल इवेंट में हुयी थी जहाँ क्षितिज और वसुधा अपने-अपने ऑफिस का प्रतिनिधित्व  कर रहे थे | क्षितिज उस आयोजन में काफी बढ़-चढ़ कर भाग ले रहा था और उसके तकनीकी ज्ञान के प्रतिभा में सभी प्रकाशमान हो रहे थे तो वसुधा भी उससे किसी विषय विशेष पर बात चीत के दौरान प्रभावित हो गयी | क्षितिज बहुत  ही गंभीर  लेकिन वाक् पटु था, बातों-बातों में दोनों ने  औपचारिक रूप से अपने बिज़नेस कार्ड एक दूसरे को दिए | वैसे भी तकनीकी क्षेत्र में उस ज़माने में लड़कियाँ कम ही होती थीं और वसुधा जैसी सुन्दर लड़की देखकर , क्षितिज भी मन ही मन उस पर मोहित हो गया था  | 
प्यार कब  परवान चढ़ता है और कब उतरता है , मानवीय भावनाएं उसको सजगता से नियंत्रित नहीं कर पातीं | बिज़नेस कार्ड पर लिखे मोबाइल नम्बरों पर संदेशों और बातचीत से शुरू हुआ यह सिलसिला कब विवाह रुपी बंधन में बदल गया दोनों को पता ही नहीं चला | राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र  की ज़िन्दगी जितनी गति से भागती है उतनी गति से यहाँ कारें भी है नहीं दौड़तीं , ज़िन्दगी कब सिग्नल तोड़कर लाल बत्ती पार कर जाती है पता  ही नहीं चलता | 
वसुधा  और क्षितिज के नीड़ में एक नव पुष्प पल्ल्वित हो गया, विवाह  के दो वर्षों के बाद  एक नन्ही पारी ने उनके घर आँगन में किलकारियाँ गुंजा  दी थीं | अब उनके जीवन में नयी उमंग आ गयी थी , और उन्होंने अपने इस नए प्रोडक्ट को नाम दिया " मानवी" | लेकिन वसुधा और क्षितिज के इस प्रोडक्ट लांच ने खुशियों के साथ साथ कुछ परेशानियां  भी ला दी थीं | उनका जीवन जो अब तक किसी हाईवे पर चलती तेज़ रफ़्तार गाड़ी जैसा था, उसे मानों संकरी गलियों में भीड़-भाड़ में धकेल दिया गया हो | 
      मानवी के जन्म के साथ वसुधा की ज़िम्मेदारियाँ भी थोड़ी  बढ़ गयी थी | ऐसे में वसुधा का साथ देने के लिए क्षितिज ने उनके जीवन की गति को बरक़रार रखने के लिए स्वयं घर पर रहकर मानवी की देखभाल का निर्णय लिया | आम धारणा के विपरीत यह निर्णाय मानो वसुधा के जीवन के सूर्य को क्षितिज़ से से दूर जाने के लिए हुआ था , उसे यह छूट अपने ऑफिस से मिली हुयी थी | 

वसुधा ने मानवी को क्षितिज के पास छोड़कर अपने नौकरी फिर से ज्वाइन कर ली थी, लेकिन इन छुट्टियों  के दौरान  उसके ऑफिस में कई सूर्य अस्त हो चुके थे | फिर से जॉइनिंग  पर उसे अपने नए बॉस, अम्बर से कार्यवश काफी जायदा मेल जोल  होने लगा क्योंकि वसुधा ही अपनी टीम की पुरानी सदस्या  बची थी  | इधर क्षितिज मानवी की देख रेख में कुछ यूँ मग्न हुआ की उसकी दिनचर्या मानवी के इर्द गिर्द ही घूमने लगी और घर पर रहकर भी वह अपनी गति से जीवन की गाड़ी सहजता से चलाने लगा | लेकिन सड़क पर चलते हुए चलते हुए दुर्घटना कभी भी हो सकती है, उसकी संभावनाएं  प्रबल हो जाती हैं  जब गाड़ी के पहिये अलग अलग गति से चलने लगें | 
      जीवन हमेशा सरपट भागती सड़क की तरह नहीं होता और उसमें उतार चढ़ाव भी होते हैं और उनसे  होने के लिए गाड़ी से उतारकर सीढ़ियां भी  चढ़नी पड़ती हैं  जिनमें कुछ सीढ़ियों की बनावट बहुत विचित्र होती है। उसमें ऊपर जाने वाली और नीचे उतरने वाली सीढ़ियाँ साथ-साथ काम करती हैं। जिन सीढ़ियों से व्यक्ति ऊपर चढ़ रहा होता है, पास की ही दूसरी सीढ़ियों से वह नीचे उतर रहा होता है। 
    अम्बर के साथ ऑफिस में ज्यादा समय बिताने के कारण वसुधा के पंखों को भी उड़ान मिलने लगी | वसुधा रोज़ ऑफिस के दूसरे  तल पर आने जाने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग करती थी, और अपने केबिन में पहुँच कर सफलता के लिए आकाश की ओर ताकती थी तो अम्बर ही उसे एकमात्र सहारा दिखता था लेकिन कहीं न कहीं वसुधा को यह आभास था की वो सफलता की सीढ़ियां चढ़ तो रही थी पर उसका परिवार दूसरी ओर उन्ही सीढ़ियों से उतर कर दूर जा रहा था | 
    चाँद अब पूरे शबाब पर था , सूरज का कोई नामों-निशान  नहीं था | वसुधा अभी अपने फ्लैट पर पहुँची ही थी | क्षितिज और मानवी उसका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे | पर आज उनके चेहरों पर वह चमक नहीं थी, क्षितिज ने वसुधा को बताया कि  उन दोनों को सुबह से तेज़ बुखार है और घर में कोई दवा भी नहीं रखी थी | वसुधा ने तय किया की वो फ्लैट से नीचे जाकर पति- बेटी के लिए दवाइयाँ ले आएगी | उसने दो कदम ही आगे बढ़ाये थे कि  उसे महसूस हुआ कि नीचे जाने वाली सीढ़ियों में उतनी रोशनी नहीं थी  जितनी ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ियों में होती है। ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर व्यक्ति मुँह ऊँचा करके चढ़ता है।        महत्वाकांक्षाओं का संसार उसे सामने झिलमिलाता दिखाई देता है। नीचे जाने वाली सीढ़ियाँ उतरते समय व्यक्ति नीचे की तरफ देखता है और हर कदम पर फिसल जाने, चूक जाने का डर बना रहता है, ऐसी सोच में उसके पैर  एक सीढ़ी से फिसल गया ।  वो ठिठक कर सीढ़ियों पर रुक गयी, पर उसे वहां रुकना  नहीं था, उन्हीं सीढ़ियों  से फिर लौट कर अपने फ्लैट को घर बनाना  था | 
      जब वह दवा लेकर वापस आयी तो दोनों को अपने हाथों से से दवा खिला कर यह एहसास किया की उसकी ज़िन्दगी की गाड़ी चलते रहने के लिए पहियों की गति में सामंजस्य बनाये रखना  होगा | मानवी के माथे को चूमकर वसुधा ने अपने ममत्व को फिर जगाया  और क्षितिज से अपने जुड़ाव को उसके हाथों में हाथ रखकर रिश्तों की गर्माहट महसूस  की | 
   अम्बर अब शनैः शनैः सूर्य के आभाव में अपनी महत्ता खोता जा रहा था, चाँद अब भी कहीं क्षितिज के पास रोशनी  फैला रहा था | 

(सिंतबर 2019 में रचित)

"मित्रता": एक परिभाषा

न मीलों में मापा जा सके जिसका विस्तार,
न शब्दों में बखाना जा सके जिसका आकार,
वक़्त की नज़ाक़त पर कर ले ये हर रिश्ता अख्तियार 
उसे ही कहते हैं मित्रता मेरे यार |
पोटली में बंधे मुट्ठी भर सत्तू का मान है मित्रता,
कृष्ण के दरबार में पहुंचे सुदामा का सम्मान है मित्रता,
राम के प्रति सुग्रीव की श्रध्दा का आधार है मित्रता,
यदि त्याग, समर्पण, विश्वास न हो तो निराधार है मित्रता |
बनते नहीं हैं , यूँ ही राह चलते मित्र कभी,
करनी पड़ती है 'अर्जित', मिलती है मित्रता तभी,
न तो कथ्य से, न ही केवल कृत्य से ,
सुख-दुःख में  साथ रहकर मित्रता होती है बड़ी |
सोचा यूँ अचानक, या कहूँ लगा यूँ अचानक,
कि जनती कहाँ है, बनती कहाँ है, पलती कहाँ है,
घटनाएं, यादें, कहानियां जो बने दोस्ती का कथानक,
अब तो हो गया है दोस्ती का रूप अति व्यापक |
मित्रता तो अब केवल एक क्लिक भर दूर है ,
थ्री-जी मोबाइल हो तो जेबों में मिलते मित्र भरपूर हैं,
न जाना , न मिले कभी, न ही चन्द लम्हे बातें कीं कभी,
फिर भी मैत्रेय कि परिपक्वता का दिखावा जरुर है |
सम्प्रति, समाज में मैत्रेय कि बदली परिभाषा है,
बढ़ गयी है उम्मीदों कि लड़ी, घट गयी प्रत्याशा  है ,
साथ निभाने से बढती मित्रता में प्रगाढ़ता है ,
वरना आज कि मित्रता कि पहचान बन गयी अप्रौढ़ता है |
( सिंतबर 2011 में रचित)

मानव जीवन रिश्तों का एक चक्र है, जिसमें स्त्री का अभिन्न स्थान है और वह अलग-अलग रूपों में पुरुष के जीवन में हर चरण पर अपना एहसास दिलाती है ।माँ, बहन, बेटी, पत्नी आदि विभिन्न रिश्तों को पिरोये जो व्यक्तित्व है, वह कहलाती है - "औरत "

रिश्तों को जन्म देती,
संजोती ,सजाती ,सँवारती है औरत।
हर पल, हर छिन ख़ुद को रवां कर
पुरुष को तारती है औरत ।।

माँ रूप में पहली गोद देती,
फलित,पोषित बेटे को करती है औरत ।
चलना-खाना, हँसना-रोना
जीवन का हर ढंग सिखाती है औरत ।।

कलाई पर राखी बाँध , रक्षा की सौगंध ले
लड़ती-झगड़ती है भाई से औरत।
शिकवे-शिकायतों को छिपाती,
हर खेल में भागीदारी करती है औरत ।।

युवा ख्यालों-ख्वाबों को पंख देती,
पति से कन्धा मिलाकर चलती है औरत।
सुख-दुःख की साझेदार,
पुरुष संग नयी पौध रोपती है औरत ।।

पुष्पों सी पल्लवित, सुगंध से परिपूर्ण
बेटी का सुख देती है औरत ।
खेली जो आँगन, पली जो दामन
अगले घर की रौशनी बनती है औरत ।।

ब्याह कर आती,नए रीति-रिवाज लाती
बहू के रूप में लक्ष्मी है औरत ।
पुनः नव संबंधों को आधार दे
एक और पुरुष को जन्म देती है औरत ।।

न अबला है, न दुर्बल है
दुर्गा, काली, शक्ति स्वरूपा है औरत।
जब ठान ले मन में जीत की
खुद ही विजय का अवतार है औरत ।।

Tuesday, April 28, 2009

तलाश... मंज़िल की...!!!

तलाश एक अदद मंजिल की ,
जो दे मुझे वो खुशी जिसकी मुझे है चाहत |

पर इस तलाश से पहले ,
क्यों न खोज लूँ ,
ख़ुद में छिपी उस चाहत को
जो देगी मुझे खुशी
या की उस खुशी की परिभाषा
जो इस चाहत में कहीं
घूंघट छिपाए बैठी है |
इसीलिए जारी है ,
तलाश एक अदद मंजिल की,
जो दे मुझे इस शक -शुबह से राहत ||

मेरे इस फलसफे को को सुनकर ,
पूछ बैठे कुछ लोग,
कि
लोग मंजिलें पाकर खुश होते हैं
या
खुशियाँ पाने के लिए मंजिलें बनते हैं ?
ये प्रश्न लगता तो है
बड़ा ही सीधा -साधा
पर दिलो-दिमाग दोनों को
झकझोर कर रख दे , ऐसा है इसमें कुछ ज्यादा |
शायद ,
या सच में
कायम रखूं मैं
तलाश एक अदद मंजिल की
दे सके जो जवाब इन सवालातों के,
बिन किए मुझे आह़त ||

सुना, देखा या पढ़ा होगा ,
जरूर से हम सभी ने,
उद्देश्यहीन , लक्ष्यहीन, ध्येयविहीन ,
जीवन,
मानव का है पशुवत,
हाय ,ये विडम्बना है
फिर भी क्यों चुने हमराह जिसका हो एक छोर निश्चित |
तभी तो क्यों छोड़ दूँ
तलाश एक अदद मंजिल की,
दिखा सके जो मुझे डगर जिसकी है सीमा अपरिमित ||

सपनों, ख्यालों और कल्पनाओं
की दुनिया है कितनी इतर
इन्हें न हो किसी,
ख़ास मकसद,इरादे या परिणाम की फिकर ,
जो हैं इस दुनिया के वासी ,
उन्हें तो न रहती है ख़ुद की भी ख़बर |
उन्ही की ख़बर लेने की खातिर,
तलाश एक अदद मंजिल की,
जो दे सके मुझे उस पराभूत सोच से जन्मी यादों की विरासत ||

दिखने में ये संसार जैसा है ,
तुमने कभी इसके भीतर झाँककर देखा है ?
बाहर से जो दिखता मालामाल है, खुशहाल है,
उसके मन में चल रहा होता एक बड़ा भूचाल है,
सुख और चैन का भेद जानना चाहा है ?
इक तो होती है अपनी, दूजी है परायी
फिर भी दुनिया ने हमेशा सुख को ही पाया
तो चैन को खोया है |
बस उसी,
सुख को चैन से मिलाने की खातिर ,
तलाश एक अदद मंजिल की,
जिसकी नियति में लिखा है बिछुड़ना
फिर भी प्रयास है यथावत ||

जारी रहेगी ,
तलाश एक अदद मंजिल की
ताकि मिल सके मुझे वो खुशी जिसकी है मुझे चाहत ||

Friday, February 6, 2009

माँ-पापा की शादी की सैन्तीस्वीं वर्षगाँठ के अवसर पर लिखित, प्रेषित और प्रशंशित

मीठी-सी नोकझोंक से भरे रिश्ते की डोर,
जो है विश्वास,
प्रेम और सहयोग से जुड़ी,
बनी जो नए रिश्तों,
नई पीढ़ी को जन्म देने की कड़ी|

है उस विशेष दिन की आज सैन्तीस्वीं वर्षगाँठ,
बनाई जिसने पुत्र-पुत्री, वधू -दामाद, नाती-पोतों की लड़ी ,
सलामत रहे सदा ये जोड़ी,
मेरे पूज्य माँ-पापा को बधाई हो हर घड़ी |

'माँ' की कृपा से हों आप यूँ सुखी,
अटल, अजर, अविरल, चिरंजीवी हो आपकी छत्रछाया
जो हम पर है पड़ी,
बनी रहे सभी पर हर घड़ी |

मैं धन्य हुआ जो आप माँ-बाप से
उत्पत्ति मुझे मिली,
बारम्बार परमेश्वर से प्रार्थना है
आपकी प्रीत रहे जुड़ी |

आपके स्नेह, ममत्व और संबल की की ये भेंट,
जीवन पर्यंत देगी हमें हर संकट से ओट,
आशीर्वाद आपका हम सभी पर रहे बरकरार ,
इतनी सी बस अरज है परमेश्वर से आज|
इतनी सी बस अरज है परमेश्वर से आज||

Tuesday, December 23, 2008

यह मेरी भावनाओं की अभिव्यक्ति है........

कुछ यूँ है तेरा मेरा नाता
ना मैं समझ पाया ,
और ना किसी को समझा पाया |

मानो तो है सब कुछ
पर ना हो तो ,
दूरियों में सिमटी पल पल की नज़दीकियों का सच |

तुम हो मुझमे ,
या की मैं हूँ तुममे
फिर भी क्यों इतने गुमसुम |

तुम हर सोच में हो मुझसे विपरीत
कारण बने यही
हमारे रिश्तों की प्रीत |
तुम हो जितनी भुल्लकड़
मैं उतना ही रखता यादों को पकड़ |

फिर भी क्यों हममें इतना लगाव ,
कि दूरियाँ
भी ना ला पायें हमारे रिश्तों में अलगाव |

हमारे रिश्ते की डोर है इतनी कोमल,
जुड़ी रहें जो 'बचपन' की यादों से पल -पल |

हमारा रिश्ता जो है सच्चाई की नींव पर खड़ा,
ज़माने की सोच से लड़कर भी है अड़ा |

मेरी दुनिया बस तुझमें है सिमटी,
जैसे पेड़ को थामे रखती है मिट्टी |

रहे ये रिश्ता हमारा,
हमेशा ये बरकरार,
हो जितनी चाहे भी-
तक़रार , इनकार , इक़रार या प्यार|

इसे मत समझना तुम इज़हार का नज़राना,
यह तो बस है मेरी भावनाओं का फसाना |

तुमको कितना मैने है समझा,
बस उतना ही तुमसे है कहना |

रहेगी हमारे इस नाते की मिसाल दुनियाँ जहाँ में,
चाहे जितनी बाधायें आयें हमारे रिश्तों की राह में |

अब दूँगा अपनी सोच को विराम,
हम सदा खुश रहें,
बस ' भगवान जी ' से है
यही प्रार्थना और अरमान |

' माँ ' की महिमा....................

माँ ,
तुम कितनी विशेष हो,
तुम्हारी यादों के बिन जीवन यह शेष हो,
तुम्हें याद करने के लिए दिवस विशेष हों,
यदि ऐसी सोच भी मन में हो ,
हम उसी क्षण अवशेष हों |

पल-पल है मुझको प्रेरित करती,
जीवन से हर दुःख को हर लेती,
नौ माह तक हमें कोख में रखती,
हमारे ख्याल में कोई क़सर धरती,
प्रसव की मृत्योंमुख पीड़ा को सहती,
ख़ुद, गीले में सोकर भी है हँसती |

रग-रग में तेरी छवि है बनती,
खुशियों की सारी दुनिया
बस तुझमे ही बस्ती |
करते तेरे गुणगान मेरी जुबान थकती,
मैं तेरी महिमा को शब्दों में बाँध सकूँ ,
ऐसी मेरी क्या हस्ती |

बचपन में तुमने मुझे,
जब भी नहलाया,
मैंने सारी रात रो-रो कर तुम्हें है जगाया ,
तुमने ही मुझे चलना सिखलाया,
पर तुम्हरे बुलाने पर, मैं भागता नज़र आया |
मेरी हर प्रिय 'डिश' अपने हाथों से बनाई,
प्यार से परोसा पहले,
ख़ुद बाद में खाई |

मेरी हर छोटी-छोटी जरूरतों को,
अपनी खूंटे से बंधी छोटी सी बचत से,
या हो आइस क्रीम , या की गोलगप्पे,
बड़े स्नेह से , वो सब कुछ दिलाई |

आस थी, कि मैं कुछ कहूँ तुमसे,
गयीं जब तुम मुझे स्कूल को छोड़ने ,
दोस्तों कि गपशप कि जल्द में,
शायद मुझे थी फुर्सत मुँह को मोड़ने |

कॉलेज में तुमने दी थी मुझे ,
सही राह पर चलने की नसीहत,
पर मैंने रातों जागकर पार्टियाँ की ,
हुई तुम्हारे अरमानों की , कुछ यूँ फजीहत |

माँ,
शायद अब अब भी समझ पाया ,
तुम्हारे दिल की ममता को तवज्जो दे पाया,
हूँ शर्मसार मैं ,
अपनी इस गुस्ताखी पर,
हुआ तुम्हारे वात्सल्य का अनुपम असर,
तुम्हारे उपकारों को मैं परख पाया |

तुम रखती हो हर पल ध्यान हमारा,
क्षण भर भी उतरे ,
मन से ख्याल तुम्हारा |

धात्री,अम्बे,मातु,
मैया, जननी,धरनी ,
हे माँ !
कैसे बखान करूँ ,
तुम्हारे उपकारों की करनी |

हे माँ !
कैसे बखान करूँ ,
तुम्हारे उपकारों की करनी |